बेला सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

बेला सूर्यकांत त्रिपाठी निराला

‘बेला’ और ‘नए पत्ते’ के साथ निराला-काव्य का मध्यवर्ती चरण समाप्त होता है। ‘बेला’ उनका एक विशिष्ट संग्रह है, क्योंकि इसमें सर्वाधिक ताज़गी है। अफ़सोस कि निराला-काव्य के प्रेमियों ने भी इसे लक्ष्य नहीं किया, इसे उनकी एक गौण कृति मान लिया है। ‘नए पत्ते’ में छायावादी सौन्दर्य-लोक का सायास किया गया ध्वंस तो है…

Description

‘बेला’ और ‘नए पत्ते’ के साथ निराला-काव्य का मध्यवर्ती चरण समाप्त होता है। ‘बेला’ उनका एक विशिष्ट संग्रह है, क्योंकि इसमें सर्वाधिक ताज़गी है। अफ़सोस कि निराला-काव्य के प्रेमियों ने भी इसे लक्ष्य नहीं किया, इसे उनकी एक गौण कृति मान लिया है। ‘नए पत्ते’ में छायावादी सौन्दर्य-लोक का सायास किया गया ध्वंस तो है ही, यथार्थवाद की अत्यन्त स्पष्ट चेतना भी है। ‘बेला’ की रचनाओं की अभिव्यक्तिगत विशेषता यह है कि वे समस्त पदावली में नहीं रची गईं, इसलिए ‘ठूँठ’ होने से बच गई हैं।

इस संग्रह में बराबर-बराबर गीत और ग़ज़लें हैं। दोनों में भरपूर विषय-वैविध्य है, यथा—रहस्य, प्रेम, प्रकृति, दार्शनिकता, राष्ट्रीयता आदि। इसकी कुछ ही रचनाओं पर दृष्टिपात करने से यह बात स्पष्ट हो जाती है। ‘रूप की धारा के उस पार/कभी धँसने भी दोगे मुझे?’, ‘बातें चलीं सारी रात तुम्हारी; आँखें नहीं खुलीं तुम्हारी।’, ‘लू के झोंकों झुलसे हुए थे जो/भरा दौंगरा उन्हीं पर गिरा।’ बाहर मैं कर दिया गया हूँ। भीतर, पर, भर दिया गया हूँ।’ आदि। राष्ट्रीयता ज़्यादातर उनकी ग़ज़लों में देखने को मिलती है।

निराला की ग़ज़लें एक प्रयोग के तहत लिखी गई हैं। उर्दू शायरी की एक चीज़ उन्हें बहुत आकर्षित करती थी। वह भी उसमें पूरे वाक्यों का प्रयोग। उन्होंने हिन्दी में भी ग़ज़लें लिखकर उसे हिन्दी कविता में लाने का प्रयास किया। लेकिन निराला-प्रेमियों ने उसे एक नक़ल-भर मान उन्हें असफल ग़ज़लकार घोषित कर दिया। सच्चाई यह कि आज हिन्दी में जो ग़ज़लें लिखी जा रही हैं, उनके पुरस्कर्ता भी निराला ही हैं। ये ग़ज़लें मुसलसल ग़ज़लें हैं। मैं स्थानाभाव में उनकी एक ग़ज़ल का एक शे’र ही उद्धृत कर रहा हूँ :

तितलियाँ नाचती उड़ाती रंगों से मुग्ध कर-करके,

प्रसूनों पर लचककर बैठती हैं, मन लुभाया है।

 

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