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मैंने जब नीलोत्पल की ‘औघड़’ पढ़ी थी तो मुझे अच्छी लगी थी। मैंने उसकी प्रशंसा में जब भी शब्द कहे तो एक नाम हमेशा सामने आया ‘राग दरबारी’। हुआ कुछ यूं कि ‘औघड़’ की समीक्षा के कमेंट बॉक्स में किसी ने ‘औघड़’ को ‘राग दरबारी’ के स्तर का बता दिया था और फिर बहुत से लोग इस तथाकथित दुस्साहस पर ऐतराज कर रहे थे।अब पिछले काफी दिन में एकमात्र अच्छी किताब श्री लाल शुक्ल की ‘रागदरबारी’ पढ़ी जा सकी है। प्रस्तुत है ‘रागदरबारी’ के पाठन का अनुभव।सबसे पहले तो यह स्पष्ट कर देना जरूरी है कि ‘औघड’ और ‘राग दरबारी’ गाँव की पृष्ठभूमि में अवश्य लिखे गये हैं किंतु दोनों अपने काल, वातावरण, शैली और उद्देश्य में काफी अलग हैं। और मेरी इच्छा तुलनात्मक अध्ययन की नहीं है इसलिए बात केवल ‘राग दरबारी’ पर होगी।’राग दरबारी’ में सामाजिक राजनैतिक के साथ प्रशासनिक न्यायिक, आर्थिक, शैक्षिक बौद्धिक, लैंगिग व्यवस्था के चित्र खींचे गए हैं। चूंकि पुस्तक व्यंगात्मक शैली में है इसलिए लेखक ने लक्षणा और व्यंजना शब्द शक्ति का व्यापक प्रयोग किया है। व्यंगात्मकत्मक शैली का प्रयोग पुस्तक की सबसे बड़ी विशेषता है। जिन लोगों को लगता है कि व्यंग्य केवल राजनीतिक होते हैं उनको यह पुस्तक पढ़नी चाहिए। पुस्तक की लगभग हर दूसरी या तीसरी पंक्ति व्यंग्य है। यह व्यंग्य व्यक्ति तथा समाज दोनों के व्यवहार के साथ मनोविज्ञान तक भी जाता है।प्रेमचंद तथा रेणु से आज तक गांव में जो भी समस्याएं थीं, वह यहां भी हैं और उनका होना स्वाभाविक है। व्यंग्यात्मक शैली के कारण लेखक पर सफेद-काले की संतुलनवादी दृष्टि अपनाने का दबाव नहीं था। वह एक तरफ से आलोचक बनकर समस्याओं पर व्यंग्य करते चले हैं।उपन्यास की कथा कुछ नहीं है। बस एक गांव है और गांव की गांव वाली समस्याएं हैं। हां, बस कोऑपरेटिव के घपले जैसी आधुनिक समस्याएं और पंचायती राज जैसी आधुनिक व्यवस्थाएं जुड़ चुकी हैं। कथा नहीं है तो पटकथा जैसा भी कुछ नहीं है। बस वर्णन है गांव और गांव वालों का, गांव में बाहर वालों का, बाहर वालों और गांव वालों के कार्यों का, बाहर और अंदर वालों के काले कारनामों का बस व्यंगात्मक वर्णन है। इन कृत्यों का वर्णन ही घटनाएं हैं, यही घटनाएं 6 माह जितने कालखंड में बिखरी हैं और एक ढीला सा कथानक बन जाता है।लेकिन यह वर्णन चरित्रों का बखूबी चित्रण करता है। बैद जी, रुप्पन, बद्री, रंगनाथ, खन्ना, प्रिंसिपल, गयादीन, छोटे, सनीचर, लंगड़, सभी के चरित्रों की विशिष्टता के साथ एकरूपता को भी देखा जा सकता है। सभी बहुरंगी चरित्र हैं, कोई नायक नहीं कहा जा सकता, कोई मुख्य चरित्र नहीं कहा जा सकता, कोई सूत्रधार नहीं कहा जा सकता। शिवपाल गंज को रंगमंच माना जाए तो शिवपाल”गंज” के गंजहा केवल इस बडे खेल की कठपुतलियाँ मात्र हैं। कहा जा सकता है कि शिवपाल गंज को 360° दर्शाने में लेखक द्वारा रचित चरित्रों का भरपूर मोगदान रहा है। शिवपाल गंज की स्थितियाँ गंजहों का निर्माण करती हैं और गंजहों के कृत्य शिवपालगंज की स्थितेि के लिए जिम्मेदार हैं।इस सघन वातावरण के निर्माण में लेखक श्री लाल शुक्ल की सशक्त भाषा भी पूर्ण सहयोग करती है। सूक्ति, व्यंग्य, लक्षणा, के साथ शब्दों का यथा स्थान प्रयोग भाषा को कथ्य का सहयोगी बनाता है। संवादों में अवधी का प्रयोग है, अंग्रेजी का भी है, शराब पिए हुए की शब्दावली भी है, हलकाने की भी है और शब्द में “फ” फसाने वाली विशिष्ट भाषा भी है। लिरिकल लेटर वाला प्रयोग भी ध्यान आकर्षण करता है। भाषा की दृष्टि से विविधता और सटीकता दोनों देखी जा सकती हैं।हो सकता है व्यंग्य को ना समझने वाले व्यक्ति को यह पुस्तक औसत से भी नीचे लगे या एक मुकम्मल कहानी के खोजकर्ताओं को पुस्तक की पटकथा लचर दिखाई पड़े। लेकिन जिस उद्देश्य से यह पुस्तक लिखी गई है उसमें यह पुस्तक पूर्ण रूप से सफल है। यदि पाठक व्यंग्य विद्या को समझता है तो मनोरंजन भी भरपूर है और हृदय विदारक यथार्थ भी।लेकिन आपने अगर यह पुस्तक नहीं पढ़ी है तो आप बस पुस्तक पढ़कर ही समझ सकते हैं कि क्यों रागदरबारी एक टाइमलेस क्लासिक है मतलब कालजई रचना।
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