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अभी अभी “भोर – उसके हिस्से की” पुस्तक पढ़ी है। रणविजय जी की शायद यह तीसरी पुस्तक है जो मैने पढ़ी है। पुस्तक पढ़ते पढ़ते नोट्स बनाने का सोचा था लेकिन पुस्तक के प्रवाह में वह ध्यान नहीं रहा। बाद में जो याद रहा है केवल वही प्रस्तुत है।पुस्तक यौन नैतिकता के प्रश्न को उठाने का प्रयास करती है। यह विवाहेत्तर सम्बन्धों, खुले विवाह (Open), व्यभिचार, असफल विवाह जैसे संदर्भों को छूती है और पाठक को चुनाव का अवसर देती है कि वह इसे सही मानता है या गलत। इसके अलावा पुस्तक विवाह संबंधों के अंदर के ठहराव और ठंडेपन को भी लिखती है। इस सब के बीच प्रश्न उठता है एक नौकरी पेशा महिला के घर व कार्य के बीच के संतुलन का । पुस्तक के चरित्र इसमें कितने सफल रहे यह पढ़कर पता कीजिएउपन्यास के पहले ही पेज पर भाषायी अभिजात्यता और भाषाई हीनता ग्रन्थि के प्रश्न को भी छुआ गया है । इसके अलावा लेखक की पुरानी पुस्तकों की तरह रेलवे विभाग यहाँ भी उपस्थित है और महकमे में महिला अधिकारियों का सूखापन भी। प्रशासनिक कार्यप्रणाली में यांत्रिकता और थकान को लेखक ने लिखा है और उसके बहाने व्यक्ति के घूमने के शौक या (Wander Lust) को जाग्रत करने का प्रयास किया है। विदेश भ्रमण के वर्णन में लेखक ने भारतीय आधुनिकता में आकर्षण व सौदर्य के अभाव को भी रेखांकित किया है।इन सभी विषयों की अभिव्यक्ति के लिए लेखक ने जिस वातावरण का निर्माण किया है उसमें प्रतापगढ़, प्रयागराज, जैसी वास्तविक जगहें भी है और खतौली रेल दुर्घटना जैसे वास्तविक घटनाक्रम भी। इस वास्तविक वातावरण के निर्माण के साथ लेखक ने कथानक को बाँधा है। कथानक एक रेखीय न होकर पूर्वदीप्ति (Elastibocks) का भी सहारा लेता है और फुटनोट (जरूरी था) का भी। लेकिन कथानक जटिल नहीं है बल्कि सरल है और चरित्रों के उद्घाटन के पश्चात तो बाद मे सरल रेखीय ही हो जाता है। आधे से अधिक हिस्से तक घटनाओ के माध्यम से बढ़ता कथानक कसावट लिये रखता है, किंतु एक स्थान पर जाकर यह ‘यात्रा-वृतांत’ का रूप ले लेता है। इसका भान स्वयं लेखक को भी है जो वह लेखकीय में स्वीकार करते हैं।इस यात्रावृतांत जैसे कथानक के हिस्से में कुछ घटनाएँ ऐसी भी लगीं जो न किसी चरित्र के विकास के लिए आवश्यक थीं न ही कथानक के विकास के लिए। यहाँ धीमे कथानक के पश्चात समापन में पुन: रणविजय की कलम ने सराहनीय कार्य किया है और एक विधिवत अंत कथानक को दिया है।रणविजय की प्रत्येक पुस्तक की भाषा प्रभावित करती है, जो यहाँ प्रत्येक भी दिखता है। लेखक ने बिम्बात्मक व चित्रात्मक शैली का पर्याप्त प्रयोग किया है और कुछ स्थानों पर प्रश्नवाचक शैली का भी प्रयोग किया है। तीन चार शब्दों में प्रिंटिंग की गलतियों को नजरंदाज किया जाए तो शब्दावली के चयन में लेखक की सजगता देखी जा सकती है। अधितर शब्दावली का चयन संदर्भ, वातावरण व चरित्र के अनुसार किया गया है। कार्यालयी शब्दावली व तकनीकी शब्दावली का प्रयोग कार्यालयी संवादों में किया गया है जैसे “बॉस चेज कर रहा है” मतलब समय सीमा से पहले कार्य करने के लिए दबाव डाल रहा है।लेखक ने स्पर्श, मौन, विराम जैसे संसाधनों को भाषा के रूप में प्रयोग किया है । इसके साथ ही शब्द चयन मात्र से बहुत कुछ कहने की क्षमता लेखक में हैं? -मंदालसा- विक्रम कब तक रुकोगे”विक्रम -“कल तक जाऊँगा”शब्दों के बाद वह वाक्यों से भी खेले हैं। लेखक ने बार बार सूत्र भाषा के प्रयोग से गागर में सागर भरा है जैसे कि “एक जूनियर इंजीनियर की सैलरी भले ही कम हो, आमदनी ठीक ठाक होती है।” लेखक ने भाषा की गरिमा व तीन महिलाओं के अंतरंग परिहास को एक साथ साधने में सफलता हासिल की है। यह तीन महिला चाँदनी, पल्लवी व मंदालसा हैं। इनके अलावा भी कुछ चारित्र हैं लेकिन वे उतना अधिक स्थान पुस्तक में नहीं पाते हैं। फिर भी छोटे हो या बड़े, सभी चरित्रों को लेखक ने पर्याप्त सावधानी से उभारा है। लेखक ने चरित्रों का परिचय भी बहुत सावधानी से किया है। जब दो व्यक्ति मिलते हैं तो पहले दो अजनबी बात करते हैं फिर उनके ओहदे बात करते हैं और अंत में चरित्र बात करते हैं। मंदालसा व पल्लवी के द्वारा लेखक ने औपचारिक से अनौपचारिक संप्रेषण की यात्रा दिखाई है जो देखने में अच्छा लगा।लेखक ने चरित्रों के मानसिक विकास को दिखाने में भी पर्याप्त श्रम किया है। प्रत्येक चरित्र के मानसिक द्वन्द और अवचेतन को लेखक ने लिखा है। चरित्रों के मनोवैज्ञानिक डिफेंस तंत्र को अलग अलग देखा जा सकता है जैसा कि चाँदनी में आक्रामता है, मंदालसा में दार्शनिकता है और पल्लवी में अन्तर्मुखिता है जिसके द्वारा वे किसी मानसिक आघात को शाने का प्रयास करते हैं। धीरे धीरे तीनों के इस अलग अलग मानसिक सत्य की वजह भी खुलकर आती हैं।लेखक ने कंडीशनिंग” के मनो-सामाजिक संबंध को लेकर भी लिखा है और उसके प्रभाव में तीन अलग -अलग चरित्रों पर एक ही घटना के प्रभाव को दिखाया है। लेखक ने लगभग प्रत्येक संवाद के साथ चरित्र की मानसिक स्थिति भी व्यक्त की है जो संवाद की प्रभावशीलता को बढ़ाती है। इसके अलावा अनिंद्रा, एन्जाइटी के मानसिक वातावरण को लेखक ने दिखाया है तो साथ ही यह भी दिखाया है कि, “शराब नहीं चढ़ती माहौल चढ़ता है।”पुस्तक में दो चरित्र है जिनके साथ लेखक के तौर पर नहीं चरित्र के तौर पर अन्याय किया गया है (ये लेखक की गलती नहीं है बल्कि यह इस तरह देखा जाए कि लेखक उन चरित्रों के साथ अन्याय होते हुए ही दिखाना चाहते थे)। पहला है विक्रम जिसे “मंदालसा द्वारा झेलना पड़ रहा है।” लेकिन विक्रम जो सब कुछ झेल रहा है उसका कोई अर्थ नहीं। विक्रम के लिए लेखक ने माफी माँग ली है। दूसरा चरित्र चाँदनी की बहन का रिश्ता लेकर आया लड़का है। कुछ देर के लिए अगर मैं Woke हो जाऊँ तो लेखक को कैंसल किया जाना चाहिए।वहाँ पर लेखक द्वारा चरित्र की कोई चारित्रिक विशेषताएँ न दिखाकर केवल उन आधारों पर निंदा की गई है जिनके आधार पर केवल लेखक को ही ‘रंगभेदी’ व ‘फैट फोबिक’ कहा जा सकता है।अब बाल की खाल निकालना बंद करूँ तो पुस्तक मेरे लिए 90% समय मनोरंजक और संजीदा थी जिसे आसानी से ‘स्त्री विमर्श’ के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है जहां स्त्री केवल स्त्री नहीं है बल्कि एक सशक्त स्त्री है जो स्वतंत्रता की दिशा ढूंढ रही है। कुछ इस तरह का पढ़ना चाहते हैं तो यह पुस्तक अच्छा विकल्प हो सकती है। रणविजय जी को शुभकामनाएँ
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