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“अंग्रेजी भाषा नहीं, अंग्रेजी माध्यम समस्या है”। एक पंक्ति में पुस्तक का सार समझा जा सकता है।एक करीबी मित्र के सुझाव पर संक्रांत सानु की यह पुस्तक “अंग्रेजी माध्यम का भ्रमजाल” पढ़ने को मिली। मूल रूप से पुस्तक ‘the english medium myth’ अंग्रेजी भाषा में है और इसका हिंदी अनुवाद सुभाष दुआ, नानक चंद शर्मा और स्वयं संक्रांत जी द्वारा किया गया है। पुस्तक के हिंदी अनुवाद को फारसी, उर्दू, अंग्रेजी प्रभाव से बचाने का अत्यधिक प्रयास किया गया है और कुछ नए हिंदी शब्द गढ़ने का भी प्रयास दिखता है। लेकिन इसी कारण कई जगह यह अनुवाद बहुत यांत्रिक और बोझिल भी लगने लगता है क्योंकि कुछ वाक्य बहुत अटपटे हो गए हैं। इसके बाद भी पुस्तक की विषयवस्तु वर्तमान संदर्भ में नितांत प्रासंगिक और अनुसंधान द्वारा रचित है।पुस्तक की विषयवस्तु को प्रस्तुत करने के लिए लेखक ने बहुत सारे डाटा और संदर्भों का प्रयोग किया है जो सराहनीय और प्रशंसनीय है। इन संदर्भों की प्रस्तुति से विषयवस्तु पर पाठक का भरोसा बढ़ता है और विषयवस्तु गंभीर बनती है। इसी प्रयास में कुछ संदर्भों को एकाधिक बार प्रयोग किया गया है जो लगभग सभी कथेतर पुस्तकों में दिखता है। एक जगह ईरान की केस स्टडी दी गई है लेकिन उस केस स्टडी का संदर्भ उससे पहले के अध्याय में ही दे दिया गया है जो मेरी दृष्टि में एक शुद्ध गलती है। उपरोक्त को नजरंदाज किया जाए तो कई प्रकार के सरकारी आंकड़ों, अंतरसरकारी आंकड़ों, वैज्ञानिक शोधों और केस स्टडी के आधार पर लेखक ने भारतीय भाषाओं को शिक्षण और प्रशासन का माध्यम बनाने की वकालत की है जिसमें अंग्रेजी माध्यम सबसे बड़ी बाधा है।अब पुस्तक के मुख्य अंशों पर दृष्टिपात करते हैं:– पुस्तक में ईरान, चीन, जापान, कनाडा, इजराइल जैसे कई देशों की भाषा नीति पर केस स्टडी दी गयी है। पुस्तक भाषा और लिपियों के ऐतिहासिक विकास की प्रक्रिया को भी समझाती है।- अपनी भाषा नीति के अन्तर्गत लेखक ने विशेष रूप से संस्कृत को अपनाने पर जोर दिया है। डॉ. अंबेडकर ने भी राष्ट्रीय भाषा के रूप में संस्कृत को अपनाने का सुझाव दिया था। लेखक के अनुसार संस्कृत आधारित शब्दावली के प्रयोग से भारत को दक्षिण व दक्षिण पूर्व एशिया से भाषाई रूप से जुड़ने में सहायता मिलेगी- लेखक भाषाओं के एकीकरण से पहले लेखन की लिपि एकीकरण एवं मानकीकरण को आवश्यक समझते हैं। पुस्तक से पहली बार मुझे पता चला कि सुभाष बोस ने आजाद हिंद सरकार की आधिकारिक लिपि के रूप में “रोमन’ को अपनाया था. जो उस समय का सामान्य ट्रैंड था।• पुस्तक उन चीजों पर चर्चा करती है जो अंग्रेजी से सीखी जा सकती हैं। लेकिन भाषा व संस्कृति के अन्तर्संबधों को समझाते हुए लेखक ने भारत को भारतीय भाषा व लिपि अपनाने की वकालत की है।- दुनिया के शीर्ष 20 अमीर देश अपनी भाषा में कार्य करते हैं जबकी निम्नतम अर्थ व्यवस्थाएँ विदेशी भाषा में कार्य करती हैं। दुनिया की शीर्ष 20 अर्थव्यवस्थाओं में केवल भारत ही अकेला है जहाँ मातृभाषा में M.B.A. नहीं किया जा सकता है।→पिछले कुछ वर्षों में हुई विद्यार्थियों की आत्महत्या को भी लेखक ने अंग्रेजी माध्यम विद्यालयों और शिक्षण संस्थानों में भारतीय भाषा भाषियों की उपेक्षा से जोड़ा है। फंक्शनल M.R.I तकनीक द्वारा यह बताया गया है कि बच्चों द्वारा मातृभाषा में सीखी गयी चीजें स्थायी प्रकृति की होती हैं।विश्व की 91.5% जनसंख्या अंग्रेजी से अनभिज्ञ हैं फिर भी अंग्रेजी को वैश्विक भाषा कहना केवल मुर्खता है। अंग्रेजी को अपनाते हुए भारतीय भाषाओं को संभाल का रख देना पर्याप्त नहीं बल्कि भारतीय भाषाओं को जीवंत बनाने की आवश्यकता है। उसी कारण लेखक ने सरकार के ‘ई-भाषा’ प्रस्ताव की भी निंदा की है जो भारतीय भाषाओं को संग्रहालय की वस्तु बनाता है।लेखक भारती लिपि को आधिकारिक रूप से अपनाने के पक्ष में हैं जिसकी श्रेष्ठता को वह न्यूरो विज्ञान, कप्यूटर, तकनीक से जोड़ते है।भारती लिपि को टाइपिंग की स्पीच, ऑप्टीकल रिकगनिशन, विजन लर्निंग, कीबोर्ड तकनीक के साथ आसानी से जोड़ा जा सकता है और सभी भारतीय भाषाओं को शामिल किया जा सकता है।लेखक द्वारा भारत की भाषा नीति को कई सुझाव दिये गये हैं– हिन्दी दिवस जैसी गैर उत्पादक व गैर हिन्दी भाषियों को हीन भावना देने वाली व्यवस्थाओं से छुटकारा |- राजभाषा अधिनियम में परिवर्तन।→ निजी संस्थान के उत्पादों को स्थानीयकरण के लिए बाध्य किया जाना चाहिए जिसमें सभी उत्पाद की जानकारी स्थानीय भाषा में हो।कार्पोरेट व सरकार की सभी सेवाएं, आवेदन पत्र, वेबसाइट, जानकारी सभी भारतीय भाषाओं में उपलब्ध होनी चाहिए जैसा कि यूरोपियन यूनियन यह कार्य 24 भाषाओं में करता है। कनाडा में केवल एक क्यूबेक राज्य में फ्रेंच भाषी अधिक मात्रा में है लेकिन सभी राज्यों के लिए फ्रेंच का प्रयोग अनिवार्य है। चीन द्वारा दुनिया की सबसे बड़ी कंपनियों में से एक वॉलमार्ट पर केवल इसलिए दण्ड लगा दिया गया कि वालमार्ट द्वारा चीनी भाषा के फाण्ट को अंग्रेजी से छोटा रखा गया।भारतीय लिपियों वाले Kayboral को उपलब्धता।→ उच्च शिक्षा की भारतीय भाषाओं में भी उपलब्धता हो और अंत में केवल भारतीय भाषाओं में ही यह कार्य जारी रखा जाए ।→ कानूनों का अधिकृत पाठ संस्कृत में रखा जाए क्योंकि यामीन भाषा के अनुवाद से पाठ का नुकसान नहीं होता।→ गैर अंग्रेजी पुस्तकों को प्रोत्साहन ।→ न्यायिक सेवा है भारतीय भाषा में ।→ सामान्यतम विदेशी भाषा के शब्द भी यदि फिल्मों में प्रयोग किए जाए तो भी भारतीय भाषा में सबटाईटल दिया जाना चाहिए।→ बहुभाषी (लिपि) सूचनापटों का निर्माण।- त्रिभाषा सूत्र का प्रयोग।- प्रत्येक विद्यार्थी के लिए संस्कृत व एक भारतीय भाषा की प्रवीणता अनिवार्य हो।- सरकारी सेवाओं के चयन मापदण्डों से अंग्रेजी को पूर्णतः बाहर किया जाए। →C.A.T और U.P.S.C. जैसी तमाम प्रतियोगी परिक्षाओं में भारतीय भाषाओं को ही माध्यम के रूप मे अनिवार्य किया जाए।- अन्तर्राष्ट्रीय शोधों के तत्काल रूप से सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद की व्यवस्था की जाए।- लेखक भारत की साइबर सुरक्षा, सामरिक सुरक्षा के लिए भी भाषायी वैविध्य की आवश्यकता को महत्वपूर्ण मानते हैं। हालांकि लेखक ने भारतीय भाषाओं के पक्ष में मजबूत पक्ष रखा है लेकिन फिर भी लेखक का एक लगातार प्रयास रहा है कि अंग्रेजी के ज्ञान व भारतीय भाषाओं की आवश्यकता को संतुलित रूप से रखा जा सके।लेखक कई देशों में सॉफ्टवेयर कंपनी चला चुके हैं और एकाधिक भाषाओं में साफ्टवेयर का प्रयोग करने वाले लोगों की टीम के साथ काम किया है। ऐसे में उनके तकनीक व भाषा के आपसी संबंधों के दावों पर भरोसा किया जा सकता है। संक्रांत जी की यह पुस्तक अपने आप में काफी प्रसिद्ध भी रही है।हिन्दी व अन्य भारतीय भाषाओं के प्रेमियों को यह पुस्तक अनुशंसित तो है ही साथ में कम से कम वह इस पोस्ट को शेयर करके भारतीय भाषाओं की मुक्ति के आंदोलन को आगे बढ़ाने में सहयोग कर सकते हैं। धन्यवाद।
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