क्रांति और सुभाष चंद्र बोस

जब गदर क्रांति विफल हो गई, असहयोग और सविनय अवज्ञा फेल हो गए, भगत सिंह और आजाद को मौत के घाट उतार दिया गया, मास्टर सूर्यसेन और जतिन दास का एनकाउंटर हो गया। जब सावरकर को नजरबंद कर दिया गया और रासबिहारी बोस निर्वासित जीवन जी रहे थे। तब भी भारत ने हार नहीं मानी थी, बंगाल की धरती से एक क्रांति का आगाज हो चुका था जो देश की स्वतंत्रता के लिए खून की मांग कर रहा था और दिल्ली चलो कह रहा था।

इस स्थिति के लिए कवि ने ये पंक्तियां लिखी हैं-

देखते हुए पलायन सारे,

अकेला कब तक भार संभाले,

कब तक करे जागरूकता प्रसार,

और इंतजार;

क्रांति की आग का;

बदलाव का;

जाने कब बने संगठन,

न जाने कब बने रणनीति,

एक अनिश्चित सी परिणीति।

सो शुरुआत तो करनी होगी,

जंग अब लड़नी होगी,

पत्थर पर चलना होगा,

कांटों से भिड़ना होगा।

मैं पगडंडियों पर नहीं चलुंगा;

हाईवे और रास्तों पर नहीं,

किसी के पदचिह्नों पर नहीं,

मैं पत्थरों पर चलुंगा;

पत्थरों पर चलना आसान नहीं,

वहां पर राह बनाना आसान नहीं,

पर चलना होगा;

क्यूंकि किसी को तो चलना होगा;

इससे पहले कि बची हुई मिट्टी,

पत्थर या रेत हो जाए।

इस मिट्टी को, इस देश को बचाने के लिए जिस व्यक्ति ने अपनी जिम्मेदारी उठाई वो और कोई नहीं हमारे नेता जी सुभाष चंद्र बोस थे। नेता जी स्वतंत्रता संघर्ष के अकेले व्यक्ति थे जिनको सम्पूर्ण भारत में स्वीकृति प्राप्त थी। उत्तर हो या दक्षिण, पूर्व हो या पश्चिम, हिंदू हो या मुस्लिम, सिख हो या क्रिश्चियन।नेता जी के बड़े भाई शरत बोस भी कम नहीं थे, बल्कि वही थे जिन्होंने सुभाष को नेता जी बनाया। गदर आंदोलन हो या अनुशीलन समिति सब से मिलवाने वाले शरत ही थे। जब भारतीयों के अपमान किए जाने पर स्कॉटिश चर्च कॉलेज में सुभाष ने अंग्रेजों से हाथापाई की तो उनका साथ देने वाले उनके बड़े भाई ही थे। कहीं एडमिशन न मिलने पर सुभाष को लंदन भेजने वाले भी शरत ही थे और उनके क्रांतिकारी हो जाने के बाद अपने पिता से लड़ने वाले भी शरत ही थे।लंदन में सुभाष ICS बनने गए थे लेकिन वहां वह बने क्रांतिकारी, भारत माता के सच्चे सेवक। यह वही ics परीक्षा है जिसको आज upsc IAS के नाम से जानते हैं। प्रारंभिक परीक्षा में सुभाष चौथे स्थान पर आए थे लेकिन अंतिम परीक्षा तक आते आते वह अग्रेजों की नौकरी करने से घृणा करने लगे थे। वह लगातार अपने पिता और भाई को पत्र लिख रहे थे। भाई समझ चुके थे। पिता का समझना बाकी था। इसी बीच वह वापस आ गए और सबसे पहले वह जिस व्यक्ति से मिले वह थे महात्मा गांधी। सुभाष ने असहयोग आंदोलन में हिस्सा लिया और असहयोग की वापसी से नाराज भी हुए। उसके बाद सुभाष बंगाल की राजनीति में सक्रिय हो गए। उनके राजनैतिक गुरु चितरंजन दास की मृत्यु के बाद तो वह बंगाली राजनीति के सबसे बड़े नेता माने जाने लगे और कलकत्ता के मेयर भी बन गए। उसके बाद सविनय अवज्ञा आंदोलन में पूर्ण स्वराज की मांग की गई लेकिन उसके बाद कांग्रेस द्वारा अपनी मांग से समझोता किया गया। सुभाष ने कड़ी आलोचना की तथा उनके विचारों को भारत भर में सहयोग मिला।1938 में वह अंततः कांग्रेस के लोकप्रिय अध्यक्ष भी चुने गए। 1939 में अध्यक्ष पद को लेकर हुए विवाद में वह कांग्रेस से दूर हो गए। विश्व युद्ध की आहट लगने के बाद हुए सभी कार्य रोमांचक और प्रेरक हैं।सुभाष घर में नजरबंद थे, वह अपने भतीजे के सहयोग से भेष बदल कर अफगनिस्तान के रास्ते रूस, इटली और अंत में जर्मनी पहुंचे। जर्मनी में सुभाष ने भारत के सैनिकों को भारत के लिए लड़ने के लिए प्रेरित किया और राष्ट्र के नाम संदेश दिया। लेकिन वहां से युद्ध संचालन करना संभव नहीं था। इसलिए 3 महीने लंबी और अत्यधिक खतरनाक यात्रा पनडुब्बी में करते हुए वह जर्मनी से सिंगापुर पहुंचे। इस मार्ग में उनको कई बार ब्रिटिश नौसैनिक जहाजों से बचना पड़ा और अकेलेपन में समय गुजारना पड़ा। सिंगापुर में पहुंचकर जो सुभाष ने किया वह इतिहास में स्वर्ण अक्षरों में दर्ज है। सुभाष ने आजाद हिंद सरकार की स्थापना की। भारत की मुद्रा और बैंक जारी किए। सेना का गठन किया और जापान की सहायता से भारत की आजादी का शंखनाद किया। इसके बाद INA मुकदमा, नौसेना विद्रोह और अंत में रियासतों के एकीकरण से होते हुए भारत आज के स्वरूप को प्राप्त हुआ। लेकिन सुभाष का क्या हुआ???कोई कहता है कि सुभाष दुर्घटना में मारे गए,कोई कहता है अंग्रेजों ने पकड़ लिएकोई कहता है रूस में मारे गएकोई कहता है गुमनामी बाबा ही तो सुभाष बोस हैं।लेकिन एक बात दावे से कही जा सकती है कि सुभाष बोस हम सभी के हृदय में हैं और जब तक ये देश रहेगा तब तक वह अपना स्थान और ऊंचा ही पाएंगे।

सुभाष ने अपना घर त्याग, अपना परिवार त्यागा, दुनिया की सबसे प्रतिष्ठित नौकरी त्यागी, अपना देश त्यागा, अपना खान पान त्यागा, अपना स्वास्थ्य त्यागा और अंत में शायद सार्वजनिक जीवन भी। केवल इस मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए। अब इस स्वतंत्रता को बचाए रखने का दायित्व हमारी पीढ़ी पर है।

यह दायित्व आजादी आजादी के नारे देकर पूरा नहीं होता, अपना सर्वस्व देकर पूरा होता है।

।जय हिंद, जय भारत।

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