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कबीर ने कहा था,
“तू कहता कागद की लेखी,
मैं कहता आँखिन देखी,
तू रखता उलझावन हारी,
मैं रख्यो अरुराई रे,
तेरा मेरा मनुवा कैसे,
एक होई रे “
इसी प्रकार संत परंपरा के एक अन्य कवि ने कहाँ है कि,
” संतन को कहाँ सीकरी सौं काम,
आवत जात पन्हैया टूटी,बिसर गयो हरिनाम”
ये दोनों ही कथन सत्ता की मुख़ालफ़त करते हैं,उसके विरुद्ध खड़े होते हैं,उस पर अविश्वास जाहिर करते हैं और स्वयं के ज्ञान को ,स्वयं के अनुभव को प्रमाणिक मानते हैं,शुद्ध मानते हैं।
गैलीलियों ने चर्च से माफी मांगते हुए भी स्वयं को गलत नहीं माना। ब्रूनो और सुकरात तो अपने सत्य के साथ मृत्यु को ही प्राप्त हो गए।
कबीर ने ग्रंथ की सत्ता को नकारा है ,ब्रूनो ने संप्रदाय की सत्ता को नकारा है,नागेली ने राज्य की सत्ता को नकारा है क्योंकि सत्ता केवल राज्य की राजनैतिक शक्ति नहीं है। प्रत्येक वह व्यक्ति, संस्था, व्यवस्था या पुस्तक जिसके पास अपने शब्द को बलात् लागू करवाने की शक्ति है,वह सत्ता है। मजहब या संप्रदाय या कई अर्थों में धर्म की सत्ता है, अकादमिक संस्थाओं की सत्ता है ,राज्य के अलग-अलग अंगों की सत्तायें हैं,मीडिया केवल सत्ता का विरोधी नहीं स्वयं भी एक सत्ता है परिवार का मुखिया एक सत्ता है,जातीय व्यवस्था एक सत्ता है , राष्ट्र एक सत्ता है,महापुरुषों की अपनी सत्ताएं हैं ,अवतारों और पैगंबरों की सत्ताए हैं, विचारधाराओं की अपनी सताए स्थापित है।
प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से यह सभी अपने शब्द को प्रमाण के रूप में मनवाने के लिए बाध्य करते हैं। तो प्रश्न वही है कि क्या सत्ता सत्य की खोज में बाधा है? क्या शब्द जो सत्ता से आए वह सत्य नहीं हो सकता है ?क्या सत्ता का शब्द अनिवार्यतः असत्य होता है ? सत्य और सत्ता का वास्तविक संबंध क्या है?
यह विदित है कि सत्ता का शब्द न,सदैव सत्य होगा है न असत्य होगा। शब्द को सदैव प्रमाणित करने की आवश्यकता बनी रहेगी।18-19वीं सदी में एक नई सत्ता का निर्माण हुआ जिसने अपनी सत्ता का आधार तर्क व प्रमाण को बताया। अपने शब्दों को प्रमाण की तरह प्रस्तुत करने वाली यह सत्ता वैज्ञानिकों की है।यह ज्ञात है कि वैज्ञानिक सत्य भी सदैव सत्य बना रहे,आवश्यक नहीं है। वैज्ञानिक सत्ता भी आसानी से शब्द को बदलने को राजी नहीं होती है किंतु यह फिर भी बाकी से लचीली है। हालांकि यह इतनी लचीली नहीं हो सकी है कि आयुर्वेद को वैज्ञानिक चिकित्सा पद्धति मान सके।
……….शेष फिर कभी।🌻🌻
@aarushi3568
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