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अनुमिता शर्मा जी का कहानी संग्रह “प्रत्याशा” प्राप्त हुआ। काफी समय बाद कोई कहानी संग्रह पढ़ा है। ‘प्रत्याशा” 11 कहानियों का संग्रह है। मैंने रात को 1 बजे इसे पढ़ना प्रारम्भ किया और सुबह तक पूरा पढ़कर ही पुस्तक रखी जा सकी क्योंकि पहली कहानी के बाद मेरी नींद उड़ गई और रात में सोने से डर लग रहा था।पुस्तक में विषय वैविध्य कम ही है। कहानियों के अंदर अलग- अलग विमर्श और मुद्दों को जरूर उठाया गया है। अधिकतर कहानियाँ अकेलेपन, बिखरन, अवसाद, मानसिक रोग एवं कष्ट को लेकर ही लिखी गई हैं।पुस्तक में दो कहानियों में पत्रकारिता के गिरते स्तर पर प्रहार है। एक लेखक के जीवन की गुमनामी व कठिनाई को भी दर्शाने का प्रयास पुस्तक करती है तो साथ में पुस्तक प्रकाशन के नाम पर चलने वाले व्यापार तंत्र को भी उजागर करती है। एक कहानी में सुशांत सिंह राजपूत की मृत्यु के पश्चात मिली प्रसिद्धी के साथ लेखक की प्रसिद्धि का समानान्तर आरेखण किया गया है। ‘सतह के नीचे’ कहानी में एक लेखक के चरित्र व लेखन के बीच की खाई को दिखाते हुए लेखक / शायर आदि को विरोमांटीकृत भी किया गया है (जबकि अधिकतर कहानी और फिल्म लेखक/ कवियों के जीवन को रोमांटीकृत करती हैं)। इस कहानी के कथानक में भी एक विशेषता दिखती है। कहानी दो बिल्कुल अलग कथानकों में बंटी दिखती है। मुख्य चरित्र कहानी की अंतिम पंक्ति में अपने जीवन के मुख्य कथानक में वापस आ जाती है और पार्श्व कथानक समाप्त हो जाता है। कहानी का कथानक व मुख्य चरित्र एक साथ अपना बिखराव खत्म करते हैं।पुस्तक यौन नैतिकता पर भी प्रश्न खड़े करती है। इस यौन नैतिकता के अलावा LGBT विमर्श को भारतीय परिपेक्ष के सत्य के साथ उतारा गया है। रंगभेद और भाषाई भेद को केवल स्पर्श भर कर दिया गया है। सबसे महत्वपूर्ण है लेखिका की प्रेम व काम को लेकर रखी गयी रहस्यवादी दृष्टि । लेखिका ने प्रेम/काम/ संभोग को एक अत्यधिक रहस्यमयी घटना की तरह वर्णित किया है। “अचानक कल की घटना ने अनुराधा को अनिरुद्ध के लिए अलौकिक से लौकिक बना दिया” जैसे कथन लेखिका के इस रहस्यवाद को दिखाते हैं। इसी दृष्टि के साथ लेखिका ने प्रेम संबंधों की पड़ताल भी की है।पुस्तक में वृद्धावस्या के अकेलेपन और मानसिक अवसाद को भी स्थान मिला है। पुस्तक इस अकेलेपन से व्यक्ति के साईको हो जाने व हत्या, आत्महत्या, पलायन तक की यात्रा को लिखती है। अवसाद से फोबिया और उसके बाद की यात्रा भी पुस्तक में मिल जायेगी। कुल मिलाकर पुस्तक अन्तर्मन की काली गहराइयों को खूब टटोलती है।कथानक के स्तर पर अन्य प्रयोगों की बात की जाए तो सरल रेखीय कथानक किसी कहानी में नहीं है। अधिकतर टूटे हुए और लगभग रुके हुए कथानक हैं। कई कहानियों में तो कथानक ही नहीं है बस वातावरण है जो लेखिका के लेखन से जीवित हो उठा है। एक कहानी में लेखिका ‘इनसेप्शन’ फिल्म की डायरेक्टर नोलन बन जाती हैं जब एक चरित्र के सपने में वह पुस्तक पढ़ रहा है और पुस्तक की कहानी को लेखिका अपनी कहानी में प्रतीक के रूप में प्रयोग कर रही है।लेखिका ने कथानकों में वास्तविकता और कल्पना को घुला मिला दिया है। यह पता नहीं चलता कि क्या वास्तव में घटना घटित हो रही है और क्या चरित्रों का वहम है। इसी कारण कहानियाँ एक “प्रत्याशा हॉरर” या “संभावित अपशकुन” वाला प्रभाव उत्पन्न करती हैं। कहानियों में एक जुगुप्सा और भय है जो वीभत्स और भयानक रस उत्पन्न करते हैं। इसलिए अगर सामान्य सामाजिक यथार्थवादी कहानियां पढ़कर बोर हो चुके हैं तो ‘प्रत्याशा’ पढ़ कर दिमाग से कसरत करवा सकते हैं।’एक परिकथा’ कहानी में लेखिका ने दो लोगों की प्रेम कहानी को तीसरे व्यक्ति के नजरिए से लिखा है जो प्रयोगधर्मी है और मुझे पसंद आया। लेखिका की किसी भी कहानी का अंत स्पष्ट नहीं है और वह धूंधली सी समाप्त होती हैं और कई बार यह उलझन भी पैदा करता है।कई लोग प्रेम कहानियों से समाज व जीवन का यथार्थ व्यक्त करते हैं, कुछ क्राइम थ्रीलर के माध्यम से करते हैं, कुछ जादुई यथार्थवाद लिखते है तो कुछ सामाजिक राजनैतिक परिवेश, लेकिन लेखिना हैं हॉरर यथार्थवादी । अगर वह हॉरर के ढांचे के माध्यम से यथार्थवादी लेखन की तरफ बढ़ते हुए उपन्यास लिखें तो उसकी सफलता की मुझे बहुत संभावना दिखती है।कहानियों के कथानकों के कसाव को बरकरार रखने की सफल कोशिश लेखिका की रही है। एक कहानी में पत्रकारिता की भर्त्सना करते हुए जब वह सुशांत सिंह राजपूत के मामले को विस्तार देती हैं तो मुझे लगा कि लेखिका कथानक से फिसल गई हैं किंतु वह संदर्भ कहानी में इस प्रकार जुड़ा कि उसकी केवल तारीफ की जा सकती है।लेखिका ने कहानियों का वातावरण बहुत गहनता के साथ निर्मित किया है। चाहे प्राकृतिक प्रदेश हो या मानव निर्मित, अन्तर्मन के चित्र हों या बाह्य भंगिमा, सभी का वर्णन लेखिका ने बखूबी किया है।, मनोवैज्ञानिक वर्णन करते हुए लेखिका ने अपने मनोरोगी चरित्रों को जीवित कर दिया है। इस अन्तर्जगत के वर्णन के लिए लेखिका ने ढेरों प्रतीकों का प्रयोग किया है। पुस्तक की दूसरी कहानी में भोजन के ताजेपन और तमाम प्रकार की गंधों का प्रतीकात्मक प्रयोग मुझे पसंद आया । इसी कहानी में मेकअप, कपडे आदि 80 से पहले के दशक का वातावरण निर्मित करते हैं।कई कहानियां कोराना काल में स्थान पाती हैं। लेखिका उस तनाव व अकेलेपन को कई हद तक लिख पायी है। सस्पेंस व थ्रिलर जैसे वातावरण के निर्माण में भी लेखिका को पर्याप्त सफलता मिली है। इसी थ्रीलर वातावरण ने ‘एंटीसिपेशन हॉरर’ को जन्म दिया है।चरित्र चित्रण की दृष्टि से देखा जाए तो लेखिका से कई कहानियों में लेखक और साहित्य प्रेमी किरदार रचे हैं। वह लेखक प्रजाति के कई चरित्र दिखा पायी हैं लेकिन वैविध्य देखने की इच्छा रहेगी। उनकी दो कहानियों के मुख्य चरित्र का नाम मृणालिनी है। उसी प्रकार दो अलग- अलग कहानियों में पुरुष चरित्रों के नाम उदय व उदित हैं। नाम के लिए थोड़ा और सोचा जा सकता था। लेखिका की शायद ही कोई स्त्री चरित्र ऐसी है जिसका प्रेम या विवाह सफलतापूर्वक चल रहा है। सभी चरित्र निराशा जैसे भावों से या तो घिरे हुए हैं या फिर उनकी ओर लुढ़क रहे हैं। यदि शुक्ल जी होते तो लेखिका के इन चरित्रों को विक्षिप्त ही कहते। लेखिका के कई सारे चरित्र पता नहीं क्यूं मार दिए जाते हैं और कई तो मरने भी नहीं चाहिए थे।लेखिका ने हीरो-विलेन का झंझट ही नहीं पाला है। काले- सफेद चरित्र नहीं है। केवल चरित्र हैं। ‘एक परिकथा’ कहानी में नायक व खलनायक की अवधारणा को अलग नजरिया दिया है। पुस्तक में कई वास्तविक लेखकों व उनकी रचनाओं का संदर्भ है किंतु किसी भी हिन्दी लेखक का संदर्भ नहीं है जो मुझे खटकता है। बस दो काल्पनिक हिन्दी पुस्तकों का संदर्भ एक कहानी में है। एक कहानी में हिन्दी लेखिका के चरित्र चित्रण में भी हिन्दी के वास्तविक उपन्यासों का संदर्भ नहीं हैं। मुझे खटकता है। अगर संवाद की दृष्टि से देखा जाए तो संवाद कम हैं और छोटे हैं। अधिकांश कथाएँ सूत्रधार द्वारा वातावरण व घटनाओं के वर्णन के साथ आगे बढ़ती हैं। जो संवाद प्रयुक्त किये गये हैं वे सटीक है लेकिन कम होने के कारण कोई विशेष टिप्पणी करना मुश्किल है।भाषा के स्तर पर फारसी या अंग्रेजी के शब्दों के प्रयोग से लेखिका को परहेज नहीं है। वह ‘हिन्दी का प्रयोग भी सटीकता से करती हैं लेकिन शब्दावली वैविध्य कम लगा क्यूंकि कुछ जगह वह नए प्रतीकों एवं बिंबों का प्रयोग करते हुए भी शब्दावली व भाषा में तीक्ष्णता नहीं ला पायी हैं। भाषा बासी नहीं है लेकिन स्वयं की पुनरावृति है।शैली के स्तर पर सूत्रधार के रूप में लेखिका उपस्थित हैं और इसी शैली के साथ कथाएं लिखी गई हैं। किंतु एक कथा में वह “मैं शैली” का प्रयोग करती हैं। यहाँ गौर करने की बात है कि लेखिका “मैं शैली” में पुरुष मुख्य चरित्र के रूप में लिख रही हैं जो एक दुर्लभ चीज है। यह पुस्तक मेरी तरह एक साथ पूरी पढ़ने के बजाय एक-एक कहानी करके पढ़ना अधिक बेहतर रहेगा क्यूँकी कहानी पढ़ना पर्याप्त नहीं उस पर सोचना भी पड़ सकता है।मुझे लेखिका का एक अलग फ्लेवर लगा जो उनकी हर कहानी में दिखता है। कुछ तो अलग है। शायद अंग्रेजी साहित्य से आया हो, मैने अंग्रेजी साहित्य ज्यादा पढ़ा नहीं है तो पता नहीं। इस फ्लेवर को अनुभव तो किया ही जा सकता है कम से कम एक बार। पुस्तक मेरे लिए “सिरंडीपिटी” साबित हुई है। इस शब्द का मतलब जानने के लिए अनुमिता शर्मा की ” प्रत्याशा” पढ़ लीजिए।इस खूबसूरत पुस्तक के लिए अनुमिता जी को धन्यवाद व पुस्तक की सफलता के लिए शुभकामनाएं।
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