दो मुसाफिर :- ज्ञान खंडे (उपन्यास समीक्षा)

ज्ञान खाण्डे की पुस्तक “दो मुसाफिर” मूलत: एक प्रेरणात्मक उपन्यास है। उपन्यास का उद्देश्य बहुत स्पष्ट है जो लगभग प्रत्येक पैराग्राफ में दिखायी देता है। संवादों में बार बार मोटीवेशनल स्पीकर वाली फील आती है। इनमें से मुझे कुछ एक पंक्तियाँ अच्छी भी लगी हैं –
“मेरे जैसे लोगों के लिए मैं जब भी कुछ करना चाहता तो खुद को उस जगह नहीं पाता, जहाँ से मैं उनके लिए कुछ कर सकता था। मैंने यह पाया कि सब करने निकला तो शायद थोड़ा भी नहीं पाऊँगा। मैने छोटे से शुरुआत करने की कोशिश की।” यह महत्वपूर्ण है कि शुरुआत की जाये।

पुस्तक घरेलू हिंसा, न्याय व्यवस्था, यौन हिंसा, जैसी समस्याओं को उठाती है। यह रिश्तों में आत्मीयता को खून के संबधों से मुक्त करने का प्रयास करती है। पुस्तक में एक ईमानदार प्रयास राजस्थानी संस्कृति को सामने रखने का भी रहा है। इसी कारण “मूमल की पूरी प्रेम कहानी” यहाँ बतायी गयी है। प्रेम के प्लूटोनिक रूप को भी यहाँ प्रतिष्ठित किया गया है जहाँ प्रेमिका ख़ुदा के रूप में पहुँचकर सूफीयाना भी हो जाती है। प्रकृति को भी छायावादी रूप में वर्णित किया गया है जिसमें रेगिस्तान से लेकर जंगल, पर्वत, बर्फ, वर्षा, सुबह रात्रि, जैसे कई रूप हैं। इन दृश्यों में लेखक वातावरण निर्माण में सफल रहते हैं। दृश्यों का पर्याप्त वर्णन किया गया है। टूलिप गार्डन हो या बस की छत हो, पाठक वहाँ तक पहुँच ही जाता है।।

लेखक की भाषा भी अच्छी है तथा यथास्थान शब्द व वाक्य चयन भी उचित प्रकार से किया गया है। समस्या यह है कि लेखक की लेखन शैली उनके कथ्य को सहयोग नहीं कर पाती है। लेखक अयान मुखर्जी की फिल्मों की याद दिलाते हैं जहाँ एक घुमक्कड़ नायक व नायिका को अप्रत्याशित प्रेम होता है और फिर प्रेम कहानी के माध्यम से मूल कथ्य सामने आ जाता है। “तुम कौन हो” डायलॉग तो ब्रह्मास्त्र फिल्म की याद दिला गया था जो उसमें कई बार है। लेखक की शैली इस कथानक को पिरो नहीं पाती है। वह आत्मकथात्मक रूप में शुरू करते हैं जिसे “मैं शैली” कहा जाता है। इल शैली में पूरी कहानी एक व्यक्ति के नजरिये से कही जानी चाहिए किंतु कई जगह कहानी में सूत्रधार आ जाता है, तथा यह किस्सागोई शैली बन जाती है। बाद में पुनः मैं शैली आती है तो ‘मैं’ का परिवर्तन होकर नायक की जगह नायिका आ जाती है और अंततः यह कथा “डायरी शैली” में समाप्त होती है।

143 पेज के उपन्यास में चार शैली बदलना मेरे लिए बड़ी गलती है। शैली एक ही रहनी चाहिए या कहानी की माँग के अनुसार बदलनी चाहिए। यहाँ अंत में डायरी शैली कहानी अनुरूप है लेकिन बीच के दो परिवर्तन मात्र त्रुटि हैं। किस्सागोई में लेखक कहीं कहीं इतना रम गये कि बिल्कुल चम्मच पान (स्पून फीडिंग) करा दिये हैं, मतलब चैप्टर के बाद शिक्षा भी लिख दिये हैं। पर पुस्तक के अंत में डायरी शैली में जिस चेतनाप्रवाह की जरूरत होती है, उसे लेकर लेखक चलते हैं और काफी अच्छा प्रभाव छोड़ते हैं बशर्ते पाठक वहाँ तक पहुँचे।

वस्तुतः लेखक का उद्देश्य उपन्यास पर हावी है जिस कारण उपन्यास कमजोर बन जाता है। चरित्रों का विकास भी सहजतापूर्ण नहीं होता तथा कथानक में घटनाओं और वर्णनों का स्थान भी उचित नहीं है। नायिका कहती है कि उसका परिवार ऐसा है जहाँ “पुरुष का अर्थ है अधिकार और स्त्री का अर्थ सहना” किंतु उसी परिवार में वह अपनी सौतेली माँ को पिता पर हावी होते हुए भी बताती है। यह डिटेल कहानी के भाव में समस्या नहीं है लेकिन तब समस्या बनती है जब कहानी में तार्किकता और यथार्थ की माँग हो। “गति और विराम का बोध लेखक में कम दिखता है।” मार्मिक क्षणों तक को महत्व देने में लेखक ने चूक कर दी है। नायिका नायक के समक्ष अपने अत्यधिक त्रासद भूतकाल का वर्णन करती है और लेखक का नायक कुल तीन वाक्यों के पश्चात् गुडनाइट बोल देता है जबकि नायक और नायिका एक दूसरे से अत्यंत प्रेम करते हैं। यहाँ पर लेखक ने नायिका के तीव्रतम भावों के स्थान पर अगले दिन नायिका के कॉलेज जाने को व नायक के ऑफिस जाने को अधिक महत्वपूर्ण माना है। ऐसे कई दृश्य है जहाँ लेखक को ठहरकर पाठक को बांधना था जबकि वह बस निकल जाते है। (शायद एडिटर, पब्लिशर ने बोला होगा कि पेज कम करो पुस्तक के)
दूसरी ओर लेखक ने नायिका के नखसिख वर्णन तथा प्रकृति वर्णन में काफी शब्द व पेज खर्च किये हैं। वह नायिका वर्णन के लिए उपमा पर उपमा तथा उत्पेक्षा पर उत्प्रेक्षा देते जाते हैं।शुक्ल जी की भाषा में कहें तो “लेखक को झक चढ़ जाती है।” वह बाह्य, दृश्य चीजों के लिए तो उपमा दे रहे हैं लेकिन भावों व अमूर्त के वर्णन के लिए कम ही ‘अप्रस्तुत विधान’ का प्रयोग करते हैं। वह सपाट भाषा में लिख देते हैं कि “मन में फलाना भाव आया”। प्रतीकों का यहाँ प्रयोग किया जा सकता था जैसे लेखक ने वर्षा और बूंद के प्रतीक से प्रेम में स्वतंत्रता के महत्व को दिखाया है। लेकिन ऐसे प्रतीक कम ही हैं। चरित्र स्वयं ही अपने मनोभावों को बोलकर बताते हैं। नायिका स्वयं बोलती है, “मेरी तो आंखें ही भर आयी हैं” जबकि नायिका के भावुक होने की स्थिति को सूत्रधार द्वारा लेखकीय वक्तव्य के रूप में बताया जाना या परिस्थिति से व्यक्त करना अधिक प्रभावशाली होता।

चरित्र चित्रण की दृष्टि से देखा जाए तो सभी ‘चरित्र एकवर्णी’ हैं। किसी भी चरित्र में मूल्यों या आदर्शों को लेकर द्वंद की स्थिति नहीं है। न ही यह द्वंद लेखक में हैं और न ही पाठक में उत्पन्न होता है। सभी एकमत होकर अच्छे और खराब चरित्रों की सूची बना सकते हैं। आजकल कई परतों वाले चरित्रों का चलन है ऐसे में एकतरफा चरित्र दिखाना यही दर्शाता है कि लेखक का पाठकीय अनुभव कम रहा है। नायिका श्रुति के चरित्र में असततता दिखाई देती है। यह अप्रत्याशित चरित्र एक तरफ उसके पास्ट का प्रभाव माना जा सकता है तो दूसरी ओर लेखक की सजगता की कमी -“निर्णय पाठक पर है”। नायक ‘गुड बॉय कबीर’ है जो नास्तिक है लेकिन उसके संवादों में ‘ईश्वर’ बार बार आता है जिसका कारण लेखक ने स्पष्ट नहीं किया है।

संवादों के स्तर पर पुस्तक सर्वाधिक निराश करती है। लम्बे एकालाप ही अधिक है। जहाँ अच्छे गतिशील संवादों की संभावना बनती है, वहाँ भी लेखक ने लम्बे-लम्बे डायलॉग दिये हैं। संवादों में भी मुख्य रूप से या तो प्रेरणात्मक संवाद आते हैं या कबीर व श्रुति की साक्षात्कार जैसे भाव उत्पन्न करने वाली बातें। मूमल की लोक कथा को कई पेज लेकर संवाद में ही कबीर ने पूरा बताया है जिसकी जरूरत नहीं थी केवल उद्धृत करना पर्याप्त होता। (‘मुझे चाँद चाहिए’ में सुरेन्द्र वर्मा ने भी सौइयों नाटकों को उद्‌धृत किया है किंतु किसी नाटक की कथा को वहाँ लिख देने का कोई तुक नहीं हो सकता था)। यह एक निरर्थक प्रयास था विशेषतः उस स्थिति में जब यह कोई विशेष प्रभाव कहानी में न डालता हो। लेखक ने मूमल की कहानी लिखकर अपनी राजस्थानी पृष्ठभूमि दर्शाने की क्षुधा शांत कर ली लेकिन कहानी पर पड़ने वाले प्रभाव का क्या?

चूंकि यह लेखक की पहली कृति है और पहली रचना में ऐसी कई तकनीकी गलतियां होना सामान्य है। यहां तक कि किसी भी रचना के लिए तकनीकी आवश्यकता पर उतरना आवश्यक ही नहीं किंतु उसकी शर्त है कि “रचना प्रभावशाली हो” अर्थात रसात्मक हो। यह पुस्तक यहाँ पर असफल हो जाती है। लेखक को अध्ययन व लेखन पर और मेहनत की आवश्यकता है ऐसा मुझे लगता है। यदि मेरे मत से लेखक या अन्य कोई आहत हुए हैं तो उसके लिए क्षमा प्रार्थी हूं।
धन्यवाद। ***

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