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लेखक देवेश पथ सारिया की पुस्तक ‘छोटी आंखों की पुतलियों में’ मेरे द्वारा पढ़े गये बहुत कम संस्मरणों में से एक है। संस्मरणों से मेरा वास्ता कम ही रहा है क्यूंकि मुझे लगता रहा है कि दूसरे के निजी जीवन में क्यूँ ही झाँका जाये। अगर वही व्यक्ति अपने संस्मरण को कल्पना कहकर उपन्यास के नाम से प्रकाशित कर दे तो बात अलग है। हालाँकि देवेश की पुस्तक ने मेरी इस धारणा को कुछ बदला भी है। शायद अब मैं सस्मरणों को और अधिक स्वीकार कर सकूँ। और अब मैं कुछ संस्मरण और भी पढूं। देवेश ने ताइवान में अपने प्रवास को जिस तरह लिखा है उससे न केवल ताइवान के प्रति जिज्ञाषा उत्पन्न होती है बल्कि ताइवान में रहने के लिए यह पुस्तक हैंड बुक का कार्य भी कर सकती है।देवेश ने ताईवान के भाषा, भूगोल, भोजन और लोग, सभी का वर्णन किया है और उनके द्वारा लेखक पर पड़े प्रभाव का भी। हर जगह वह अपने संस्मरणों के उदाहरण से कथ्य को वास्तविकता के धरातल पर लेकर आते हैं। फिर वह विश्लेषण प्रारम्भ करते हैं। यह विश्लेषण दो तरफा होता है। एक अपने अन्तर्मन और अपने कृत्यों का विश्लेषण । दूसरा उस घटना का वर्णन। इस विश्लेषण में एक तपे हुए लेखक की तरह देवेश ने सफलता अर्जित की है। वह अन्तर्गन के द्वंद को न केवल प्रतीकों व उपमाओं के माध्यम से समझा पाये हैं। वल्कि यह कहना होगा कि वह उसे सत्यनिष्ठा के साथ उकेरते हैं, अपनी कमियों सहित।वह घटनाओं के साथ ही नये स्थान की कठिनाईयाँ, रोमांच व विविधता को बताते जाते हैं तो बार बार स्वदेश के प्रति अनुराग को भी जताते जाते हैं। “अभी भारत होता तो………” से वह बिना कहे ही बहुत कुछ कह जाते हैं। इस वर्णन में जहाँ एक तरफ लेखक के विविधता पूर्ण व विस्तृत ज्ञान का पता चलता है वहीं दूसरी ओर उनकी लालित्यपूर्ण लेखन शैली का प्रमाण मिलता है।वह वर्णन और विश्लेषण को भी रोचक बनाते हैं। उनके विश्लेषण में तार्किकता, मार्मिकता, विनोद व भाव प्रवणता यथास्थान समुचित तरीके से आ जाती हैं। उनके द्वारा ‘कोरोना काल में ताइवान’ का वर्णन अत्यन्त रोचक, सूचनाप्रद व मार्मिक ढंग से किया गया है। देवेश अच्छी तरह जानते हैं कि पाठक को कहाँ ठहरा कर भावुक किया जा सकता है और कहाँ केवल सूचना देकर आगे बढ़ना है। इसलिए पुस्तक कहीं बोरियत का भाव नहीं उत्पन्न करती।पुस्तक के खण्ड -2 में लेखक ने अनूदित साहित्य व साहित्य के भविष्य पर विचार किया है। यहाँ ज्यादातर हिस्सा विचारात्मक ही है और लेखक से कई जगह सहमति व असहमति बनती है। संभवत: यह हिस्सा पुस्तक के मूल कथा के रूप में न होकर अन्य रूप में होना चाहिए था, अनुलग्न या पूर्वलग्न रूप में।भाषा की बात की जाये तो एक कवि के रूप में स्थान बना चुके व्यक्ति से जैसी भाषा की आशा की प्रस्तुत जाती है, देवेश ने वैसी ही भाषा प्रस्तुत की है। वह शब्द चयन, वाक्य विन्यास, भाषा शैली व प्रतीक आदि के प्रयोग में सजग हैं तथा कथ्य को सक्षम भाषा प्रदान कर पाते हैं। सम्भवत: कुछ नये प्रतीक उनके द्वारा स्वयं ही खोजे गये हैं। जैसे वह अपनी यूनीवर्सिटी के जटिल रास्तों की किसी लड़की के फोन के बिखरे हुए एप्लीकेशन से तुलना करते हैं। और यह अजीब नहीं लगता।वह सजगता का एक परिचय अपनी “पालिटिकली करेक्टनेस” से भी देते हैं। लेखक किसी भी समूह के प्रति पूर्वाग्रह अपनी भाषा में प्रदर्शित नहीं होने दिया है। लल्लनटॉप वाले सौरभ द्विवेदी जी को भी नामोच्चार (Shout out) पुस्तक में दिया गया है। ‘ब्लूबेरी क्रम्बल’ मेरा प्रिय अध्याय रहा है जब भाषाई व विश्लेषण क्षमता दोनों उच्च स्तरीय हैं।कुल मिलाकर पुस्तक मुझे पसंद आयी और यदि ताइवान जाना चाहते हैं तो आपके लिए यह पुस्तक एक अच्छा मार्गदर्शक हो सकती है। आपके स्वागत के लिए देवेश पथ सरिया शायद बाहें फैलाये खड़े मिल सकते हैं।भारत- ताईवान के रिश्तों में बढ़ती प्रगाढ़ता के बीच यह पुस्तक और देव जुड़ाव का एक और तंतु प्रदान करते हैं। लेखक को अत्यधिक शुभकामना को साहित ‘शुभ दीपावली”।
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