आइंस्टीन के कान

भाषा को आगे बढाने का एकमात्र उपाय है भाषा में ज्ञान का सृजन। ज्ञान में विज्ञान स्वभाविक रूप से आता है। तो हिन्दी प्रेमियों के लिए आवश्यक है कि वे हिन्दी में विज्ञान का लेखन करें। सुशोभित द्वारा रचित ‘आइंस्टीन के कान’ किसी मौलिक विज्ञान की खोज नहीं करती है लेकिन यह उन लोकप्रिय व चर्चित विज्ञान की अवधारणाओं को लालित्यपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करती है जिससे विज्ञान कोई कठिन बौद्धिक विषय नहीं हृदय के निकट का विषय बन जाता है। न्यूटन हो या आइंस्टीन, कार्ल हो या कैपलर, सभी के प्रति नतमस्तक होने वाला भाव यह पुस्तक उत्पन्न करने में सक्षम है। ‘लिंडा समस्या’ हो या फीर ‘आइंस्टीन बोर डिबेट’ हो, सुशोभित ने जटिलतम संदर्भ को भी सरलतम भाषा में व्यक्त करने का भरसक प्रयास किया है। इस कवायद में सुशोभित ने विज्ञान तकनीक के शब्द ज्यों के त्यों भी लिए हैं तो उनके अनुवाद भी प्रयुक्त किए हैं। अंग्रेजी शब्दों से व्यंजना की है तो हिंदी फारसी से यथारूप निरूपण भी किया है। “वुड वाइड वेब” जैसी संकल्पना में तकनीकी स्पष्टता कुछ कम लग सकती है लेकिन मार्मिकता पूर्ण रूप में पहुंचती है। वह चेतना और ब्लैक होल के संबंध को समझने का प्रयास करते हैं, ‘एल्गोरिथ्म’ के फ्रेंकस्टाइन मॉन्सटर की भयावहता दर्शाते हैं, ‘इंटेलिजेंट डिजाइन’ जैसी उभरती सोच को बताते हैं, ’स्ट्रिंग थ्योरी’ और ‘क्वांटम ग्रेविटी’ को बार-बार छू कर आते हैं।लेकिन उतना ही कि यह तकनीकी वर्णन किसी गैर तकनीकी पृष्ठभूमि वाले को परेशान ना कर सके। जब इस तथ्य पर गौर किया जाता है कि सुशोभित स्वयं विज्ञान की पृष्ठभूमि से नहीं हैँ तो उनके इस प्रयास को और अधिक सार्थकता मिल जाती है। जब वह पेज 121 के ‘एवोल्यूशन ऑफ ब्यूटी’ अध्याय के चौथे अनुच्छेद में सौन्दर्यशास्त्र पर चर्चा करते हैं या ‘मारदूक की मृत्यु’ अध्याय में नास्तिकता को बिना एक भी बार नास्तिक शब्द कहे स्थापित करते हैं तो वह विश्चय ही साहित्यिक उत्कर्ष पर होते हैं। अपनी कल्पना की उड़ान भरते हुए वह कहते हैं हमें odd numbers का बहुत चाव है। 1 खुदा, 3 dimension, 5 elemens, 7 notes हैं, इसलिए प्लेनेट 9 होने चाहिए। ऐसा एक वैज्ञानिक नहीं सोच सकता। हाँ, वैज्ञानिक होता तो कहता, “absence of evidence is not, evidence of absence”। कार्ल सैगन का यह कथन पुस्तक में महत्त्वपूर्ण रूप से अंकित है।पुस्तक में हरारी, हैली, एडिइंगटन, सैगन जैस कई लेखकों का जिक्र है। ‘इंटरस्टेलर’, ‘ग्रेविटी’, ‘द मार्सियन’ जैसे साइंस फिक्सन का जिक्र है। किंतु एक भी भारतीय साइंस फिक्सन पुस्तक में में ना देखकर दुख हुआ (शायद हमने लिखे ही नहीं)। ‘प्रदीप कृष्ण’ नामक भारतीय शास्त्री का संदर्भ तो है किंतु महत्वपूर्ण नहीं है। ‘सिद्धार्थ मुखर्जी’ का संदर्भ देखकर अच्छा लगा पर वह भी हिन्दी लेखक नहीं हैं और अब तो शायद भारतीय नागरिक भी नहीं हैं।हिन्दी साहित्य व फिल्म में साइंस फ़िक्शन व मौलिक विज्ञान की खोज अभी भी जारी है। उम्मीद है कि लेखन में प्रवेश करने वाले लोग हिन्दी को माध्यम बनाएंगे और विज्ञान को विषयवस्तु। हालांकि अभी हमारे सभी तकनीकी पृष्ठभूमी वाले लेखक “चेतन भगत जी” से प्रेरित दिखते हैं और प्रेम और संबंधों पर लिख रहे हैं। सभी तकनीकी पृष्ठभू वालों से अनुरोध है कि हिन्दी भाषा को समृद्ध कीजिए, भाषा से भी और विषयवस्तु से भी। हिन्दी में विज्ञान के किसी भी प्रोजेक्ट के प्रचार प्रसार के लिए साहित्यारुषि परिवार कटिबद्ध है।लेखक सुशोभित का इस सफल कृति के लिए आभार एवं शुभकामनाओं सहित सभी से पुस्तक को पढ़ने की अपील है।

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